ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:।
अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय।।
आप सभी को धनतेरस पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।।
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ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:।
आप सभी को धनतेरस पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोह्यस्तु ते।।
अर्थातः तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।
श्लोक
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ।।
देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार , संयम की वृद्धि होती है। जीवन की कठिन समय मे भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है। देवी अपने साधकों की मलिनता, दुर्गणों व दोषों को खत्म करती है। देवी की कृपा से सर्वत्र सिद्धि तथा विजय की प्राप्ति होती है।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।
भावार्थ:- देवी, मुझे सौभाग्य और स्वास्थ्य दो। परम सुख दें, आकार दें, जीतें, प्रसिद्धि दें और काम, क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करें।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ॥
भावार्थ:- अधिक लाड़ से अनेक दोष तथा अधिक ताड़न (कठोरता) से अनेक गुण आते हैं। इसलिए पुत्र और शिष्य को लालन की नहीं ताड़न (कठोरता) की आवश्यकता होती है।
चाणक्यनीतिः
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
भावार्थ :- जिस देश अर्थात् नगर में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले, जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।
चाणक्यनीतिः
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत् ॥
भावार्थ:- जिस स्थान पर कोई धनवान, वेदपाठी विद्वान, राजा, वैद्य और नदी न हो, वहाँ पर एक दिन भी वास नहीं रहना चाहिए । उपर्युक्त सभी जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं ।
चाणक्यनीतिः
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे ।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
भावार्थ :- किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेजते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।
चाणक्यनीतिः
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र सङ्गतिम् ॥
भावार्थ:- जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, मनुष्य को ऐसे स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए।
चाणक्यनीतिः
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या च प्रियवादिनी ।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
भावार्थ :- जिसके घर में न माता हो और न प्रिय वचन बोलने वाली स्त्री हो, उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं अर्थात् जीवन में माता और पत्नी का महत्वपूर्ण स्थान होता है।
चाणक्यनीतिः
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिः वराङ्गणा।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥
भावार्थ:- भोज्य पदार्थ और भोजन करने की शक्ति, सुन्दर स्त्री और रति करने की शक्ति, वैभव तथा दान करने की इच्छा शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्य का फल नहीं होता अर्थात् ये सब भाग्यवान् को प्राप्त होते हैं।
चाणक्यनीतिः
कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहे निवासनम् ॥
भावार्थ:- मूर्खता कष्टदायक है, अनियंत्रित यौवन भी कष्टदायक है, किन्तु दूसरों के घर में रहना सबसे बड़ा कष्टदायक होता है।
चाणक्यनीतिः
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥
भावार्थ:- बच्चे को न पढ़ाने वाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं। क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित लोगों के बीच में कौए के समान शोभा नहीं पता ।
चाणक्यनीतिः
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
भावार्थ: पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और सामने प्रिय वचन बोलने वाले - ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।
चाणक्यनीतिःमनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्यं चापि नियोजयेत् ॥
भावार्थ:- मन में चिन्तित कार्य को कभी भी दूसरों के समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए अपितु मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए । गुप्त रखकर ही उस कार्य को पूर्ण करना चाहिए ।
चाणक्यनीतिःशैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥
भावार्थ:- न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है संसार में सज्जन व्यक्ति नहीं मिलते। इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नही होते । अर्थात् ये सभी अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं ।
चाणक्यनीतिःयो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत् ॥
भावार्थ: - जो व्यक्ति निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है । अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है। इसलिए जो निश्चित हो उसी का चयन करना चाहिए।
चाणक्यनीतिःसमाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते ।
वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे ॥
भावार्थ:- समान स्तर बालों से ही मित्रता की शोभा होती है । सेवा भाव से राजा की शोभा होती है। व्यापार से वैश्यों की शोभा होती है। शुभ स्त्री से घर की शोभा होती है
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो, यावन्मृत्युश्च दूरतः ।
तावदात्महितं कुर्यात्, प्राणान्ते किं करिष्यति ॥
मनुष्य को जब तक यह शरीर स्वस्थ है और मृत्यु दूर है उसी समय अपने हित (आत्मसाक्षात्कार) का उपाय कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु हो जाने पर वह क्या करेगा ? अर्थात कुछ नहीं कर पायेगा ।
विदुरनीतिः
आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैस्सह सम्प्रयोगः । स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥
भावार्थ :- स्वस्थ रहना, ऋणमुक्त रहना, परदेश में न रहना, सज्जनों के साथ संगति, स्वव्यवसाय द्वारा आजीविका चलाना तथा भयमुक्त जीवनयापन - ये छह बातें सांसारिक सुख प्रदान करती हैं ।
यथाखरश्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य |
तथैव शास्त्राणि बहून्यधीत्य क्रिया विहीनाः खरवद्वहन्ति ।।
(सुश्रुत)
जैसे चन्दन का भार उठाने वाला गधा केवल यह जानता है कि मेरे ऊपर बोझ है, वह चन्दन के गुणों को सर्वथा नहीं जानता। इसी प्रकार वह मनुष्य जिसने यद्यपि बहुत से शास्त्र पढ़े हैं, परन्तु उन के अनुसार कर्म न करने के कारण केवल बोझ लादने वाले गधे की भाँति है, अर्थात उसका पढ़ा लिखा व्यर्थ है ।
विदुरनीति:
दम्भं मोहं मात्सर्यं पापकृत्यं राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम् । मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान् वर्जयेत् स प्रानः ॥
भावार्थ :- जो व्यक्ति अहंकार, मोह, मत्सर्य (ईष्र्या ), पापकर्म, राजद्रोह, चुगली समाज से वैर भाव, नशाखोरी, पागल तथा दुष्टों से वाद विवाद बंद कर देता है वही बुद्धिमान् एवं श्रेष्ठ है ।
विदुरनीतिः
प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।
जीर्यन्त्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणां महीपते ॥
भावार्थ :- प्राय : धनवान लोगो में खाने और पचाने की शक्ति नहीं होती और निर्धन लकड़ी खा लें तो उसे भी पचा लेते हैं।
विना प्रयत्नेन वक्तुं च भोक्तुं न शक्यते पादयुग्मं विहर्तुम् । जीवस्वभावो ऽस्ति तथापि लोके तन्नीयते यत्र न हि प्रयत्नः ||३३||
प्रयत्न के बिना बोल नहीं सकते, खा नहीं सकते, चल भी नहीं सकते अर्थात् कुछ नहीं कर सकते फिर भी आश्चर्य है संसार में जीव का स्वभाव ऐसा है कि प्रयत्न के बिना जो कुछ मिले उसे ले लेना है ।।
विदुरनीतिः
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥
भावार्थ :- धर्म की रक्षा सत्य से होती है, विद्या की रक्षा अभ्यास से सौंदर्य की रक्षा स्वच्छता से तथा कुल की रक्षा सदाचार से होती है।
विदुरनीति:
य आत्मनाऽपत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुभर्वत्युत ।
अनन्ततेजाः सुमनाः समाहितः स तेजसा सूर्य इवावभासते ॥
भावार्थ : जो व्यक्ति अपनी मर्यादा की सीमा को नहीं लाँघता, वह पुरुषोत्तम समझा जाता है। वह अपने सात्विक प्रभाव, निर्मल मन और एकाग्रता के कारण संसार में सूर्य के समान तेजवान होकर ख्याति पाता है।
विदुरनीति:
असन्त्यागात् पापकृतामपापान् तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्दंदह्यते मिश्रभावात् तस्मात् पापैः सह सन्धि न कुर्य्यात् ॥
भावार्थ :- दुर्जनों की संगति के कारण निरपराधी भी उन्हीं के समान दंड पाते है; जैसे सुखी लकड़ियों के साथ गीली भी जल जाती है। इसलिए दुर्जनों का साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए।
विदुरनीति:
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् ।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कुर्यात् दीर्घसूत्रैः रभसैश्चारणैश्च ॥
भावार्थ :- अल्प बुद्धि वाले, विलम्ब से कार्य करने वाले, अत्यधिक शीघ्रता करने वाले और चाटुकार लोगों के साथ गुप्त विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए । राजा को ऐसे लोगों को पहचानकर उनका परित्याग कर देना चाहिए।
माधुर्येण द्विगुणशिशिरं वक्त्रचंद्रं वहन्ती
वंशीवीथीविगलदमृतस्रोतसा सेचयन्ती।
मद्वाणीनां विहरणपदं मत्तसौभाग्यभाजां
मत् पुण्यानां परिणतिरहो नेत्रयोः सन्निधत्ते ॥
अनुवाद:- आहा ! जो माधुर्य के कारण दुगना शीतल वदनचंद्र वहन कर रहे हैं, जो वंशी वीथीविगलित (वंशीमार्ग से निकल रहे) अमृत-प्रवाह से व्रजदेवियों को, मुझे और जगत् को सींच रह हैं, जो अपने सौन्दर्यादि वर्णन में प्रेमोन्मत्त और सौभाग्यभाजन मेरे वाक्य के विहारस्थान हैं, वही मेरे पुण्य की परिणति के रूप में मेरे नेत्रों के आगे उदित हुए।।75।।
विदुरनीतिः
रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम् ।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥
भावार्थ :- बाणों से छलनी और फरसे से कटा गया वन पुनः हरा भरा हो जाता है परन्तु कटु वचन से बना - घाव कभी नहीं भरता, इसलिए हमें कटु वचन बोलने से बचना चाहिए ।
विदुरनीतिः
जरा रुपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा हियं कामः सर्वमेवाभिमानः ॥
भावार्थ :- वृद्धावस्था खूबसूरती को नष्ट कर देती है, उम्मीद धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, निंदा धर्मपूर्ण व्यवहार को, क्रोध आर्थिक उन्नति को, दुर्जनों की सेवा सज्जनता को, काम भाव - लाज - शर्म को तथा अहंकार सबकुछ नष्ट कर देता है।
विदुरनीतिः
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलाकधूर्त्त च चिकित्सकं च।
अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साक्ष्ये त्वधिकुर्वीत सप्त॥
भावार्थ :- हस्तरेखा व शारीरिक लक्षणों के जानकार को, चोर व चोरी से व्यापारी बने व्यक्ति को, जुआरी को , चिकित्सक को, मित्र को तथा सेवक को -इन सातों को कभी अपना गवाह न बनाएँ, ये कभी भी पलट सकते हैं।
विदुरनीतिः
यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम् ।
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति ॥
भावार्थ :- जिसके भाग्य में पराजय लिखी हो, ईश्वर उसकी बुद्धि पहले ही हर लेते हैं, इससे उस व्यक्ति को अच्छी बातें नहीं दिखाई देती, वह केवल बुरा ही बुरा देख पाता है अतः हमें सर्वत्र अच्छाई देखने का प्रयत्न करना चाहिए ।
'सुजनः खलु भृत्यानुकम्पकः स्वामी निर्धनकोऽपि शोभते ।
पिशुनः पुनर्द्रव्यगर्वितो दुष्करः खलु परिणामदारुणः ॥'
नौकरों पर दया करने वाले सज्जन मालिक निर्धन रहने पर भी सुखदायी (शोभित) होता है, किन्तु धन के मद में चूर दुष्ट मालिक दुःख से सेवा करने योग्य तथा अन्त में भयंकर होता है।
श्रद्धा रतिर्यत्र विपत्तिकाले दुःखेषु भावो भगवद्गुणेषु ।
स्तुतिर्हरौ संस्मरणं सुखेषु कृतज्ञतास्सन्तु प्रतिक्षणं हि ॥४५॥
संकटकाल में भगवान में श्रद्धा और रति, दुःखों में भगवद्गुणों में भाव, सुखों में नित्य हरिस्मरण के साथ स्तुति और प्रतिक्षण प्रभु में कृतज्ञता का भाव रखिए ।।
विदुरनीतिः
प्राप्नोति वै वित्तमसद्बलेन नित्योत्त्थानात् प्रज्ञया पौरुषेण ।
न त्वेव सम्यग् लभते प्रशंसां न वृत्तमाप्नोति महाकुलानाम् ॥
भावार्थ:- बेईमानी से, निरन्तर प्रयत्न से, चतुराई से कोई व्यक्ति धन तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु सदाचार और उत्तम पुरुष को प्राप्त होने वाले आदर सम्मान को प्राप्त नहीं कर सकता।
विदुरनितिः
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः ।
मन्त्रमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः ॥
अर्थ:- कोई व्यक्ति दान देकर प्रिय होता है, कोई मीठा बोलकर प्रिय होता है, कोई अपनी बुद्धिमानी से प्रिय होता है; लेकिन जो वास्तव में प्रिय होता है, वह बिना प्रयास के प्रिय होता है।
स्वभावं न जहात्येव साधुरापदतोsपि सन्
कर्पूरः पावकस्पृस्तिः सौरभं लभतेतराम् ।
सज्जन व्यक्ति अपना नैसर्गिक अच्छा स्वभाव किसी बडी आपदा के उपस्थित होने पर भी उसी प्रकार नहीं त्यागते जैसा कि कपूर आग के संपर्क में आ कर जल जाने पर और भी अधिक सुगन्ध देने लगता है।
Noble persons do not shed their inherent good nature even while facing a calamity just like the Camphor, which on coming into contact with fire and while burning emits even more fragrance.
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।
(मनुस्मृति - ३/६०)
अर्थात - जिस परिवार में पत्नी से पति सन्तुष्ट हो तथा पति से पत्नी सन्तुष्ट हो वहां निश्चित ही कल्याण है। अर्थात् उस परिवार का कल्याण निश्चित है।
मङ्गलं सुप्रभातम्
विदुरनीति:
बुद्धयो भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत् ।
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति ॥
भावार्थ:- ज्ञान द्वारा मनुष्य का डर समाप्तहोता है. तप द्वारा ता तारा उसे उन्नत पद मिलता है. गुरु की सेवा के द्वारा विद्या प्राप्त होती है तथा योग द्वारा शांति प्राप्त होती है।
विदुरनीतिः
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
भावार्थ:- सुख चाहने वाले से विद्या दूर रहती है और विद्या चाहने वाले से सुख। इसलिए जिसे सुख चाहिए, वह विद्या को छोड़ दे और जिसे विद्या चाहिए, वह सुख को। इसलिए तपस्या पूर्वक विद्या ग्रहण करना चाहिए ।
विदुरनीतिः
यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यः तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः।
मायाचारो मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः ॥
भावार्थ:- जो जैसा है उसके साथ तैसा ही व्यवहार करना चाहिए। कहा भी गया है, जैसे को तैसा। यही लौकिक निति है। बुरे के साथ बुरा ही व्यवहार करना चाहिए और अच्छों के साथ अच्छा।
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति । नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग् लभते प्रशांसाम् ॥
भावार्थ :- जो व्यक्ति किसी की बुराई नही करता, सब पर दया करता है, दुर्बल का भी विरोध नहीं करता बढ-चढकर नही बोलता, विवाद को सह लेता है वह संसार मे कीर्ति पाता है।
संस्कृत धारा
सूर्य नमस्कार
॥ ॐ ध्येयः सदा सवितृ मण्डल मध्यवर्ती, नारायण सरसिजा सनसन्नि विष्टः
केयूरवान मकरकुण्डलवान किरीटी, हारी हिरण्मय वपुर् शंख चक्रः ॥
ॐ मित्राय नमः ।
ॐ रवये नमः ।
ॐ सूर्याय नमः।
ॐ भानवे नमः ।
ॐ खगाय नमः।
ॐ पूष्णे नमः ।
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः ।
ॐ मरीचये नमः ।
ॐ आदित्याय नमः।
ॐ सवित्रे नमः ।
ॐ अर्काय नमः ।
ॐ भास्कराय नमः ।
ॐ श्रीसवितृसूर्यनारायणाय नमः।
॥ आदित्यस्य नमस्कारन् ये कुर्वन्ति दिने दिने,
आयुः प्रज्ञा बलं वीर्यं तेजस्तेषांच जायते ॥
जो लोग प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते हैं, उनकी आयु, प्रज्ञा, बल, वीर्य और तेज बढ़ता है।
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:। अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय।। आप सभी को धनतेरस पर्व की हार्दिक शुभकामना...