लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ॥
भावार्थ:- अधिक लाड़ से अनेक दोष तथा अधिक ताड़न (कठोरता) से अनेक गुण आते हैं। इसलिए पुत्र और शिष्य को लालन की नहीं ताड़न (कठोरता) की आवश्यकता होती है।
चाणक्यनीतिः
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
भावार्थ :- जिस देश अर्थात् नगर में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले, जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।
चाणक्यनीतिः
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत् ॥
भावार्थ:- जिस स्थान पर कोई धनवान, वेदपाठी विद्वान, राजा, वैद्य और नदी न हो, वहाँ पर एक दिन भी वास नहीं रहना चाहिए । उपर्युक्त सभी जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं ।
चाणक्यनीतिः
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे ।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
भावार्थ :- किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेजते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।
चाणक्यनीतिः
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र सङ्गतिम् ॥
भावार्थ:- जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, मनुष्य को ऐसे स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए।
चाणक्यनीतिः
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या च प्रियवादिनी ।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
भावार्थ :- जिसके घर में न माता हो और न प्रिय वचन बोलने वाली स्त्री हो, उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं अर्थात् जीवन में माता और पत्नी का महत्वपूर्ण स्थान होता है।
चाणक्यनीतिः
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिः वराङ्गणा।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥
भावार्थ:- भोज्य पदार्थ और भोजन करने की शक्ति, सुन्दर स्त्री और रति करने की शक्ति, वैभव तथा दान करने की इच्छा शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्य का फल नहीं होता अर्थात् ये सब भाग्यवान् को प्राप्त होते हैं।
चाणक्यनीतिः
कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहे निवासनम् ॥
भावार्थ:- मूर्खता कष्टदायक है, अनियंत्रित यौवन भी कष्टदायक है, किन्तु दूसरों के घर में रहना सबसे बड़ा कष्टदायक होता है।
चाणक्यनीतिः
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥
भावार्थ:- बच्चे को न पढ़ाने वाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं। क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित लोगों के बीच में कौए के समान शोभा नहीं पता ।
चाणक्यनीतिः
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
भावार्थ: पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और सामने प्रिय वचन बोलने वाले - ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।
चाणक्यनीतिःमनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्यं चापि नियोजयेत् ॥
भावार्थ:- मन में चिन्तित कार्य को कभी भी दूसरों के समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए अपितु मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए । गुप्त रखकर ही उस कार्य को पूर्ण करना चाहिए ।
चाणक्यनीतिःशैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥
भावार्थ:- न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है संसार में सज्जन व्यक्ति नहीं मिलते। इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नही होते । अर्थात् ये सभी अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं ।
चाणक्यनीतिःयो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत् ॥
भावार्थ: - जो व्यक्ति निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है । अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है। इसलिए जो निश्चित हो उसी का चयन करना चाहिए।
चाणक्यनीतिःसमाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते ।
वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे ॥
भावार्थ:- समान स्तर बालों से ही मित्रता की शोभा होती है । सेवा भाव से राजा की शोभा होती है। व्यापार से वैश्यों की शोभा होती है। शुभ स्त्री से घर की शोभा होती है
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